सुप्रीम कोर्ट के एक बेंच ने दिन बुधवार को एक केस की सुनवाई के दौरान एक कैदी की उम्र कैद की सज़ा को 10 साल का करते हुए बोला कि हत्या और गैर इरादतन हत्या में सिर्फ एक महीन धागे का फर्क है लेकिन उनकी सज़ा में बहुत बड़ा अंतर है। दोनों के मध्य हमेशा अंतर करने में मुश्किल होती है। सुप्रीम कोर्ट ये बाते एक फैसले में हत्या को गैर इरादतन हत्या में बदलते समय दिया।
न्यायमूर्ति के एम जोसेफ और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट की बेंच ने इस बात के साथ ही अपने फैसले में मुजरिम की उम्र कैद की सजा को बदलकर 10 साल की कैद कर दिया. बेंच ने अपने फैसले को बदलते हुए कहा कि हत्या के मामले में आईपीसी की धारा 302 के तहत कारावास सज़ा है जबकि गैर-इरादतन हत्या के मामले में आईपीसी की धारा 304 के तहत कारावास की सज़ा है.
बेंच ने कहा कि हत्या और गैर इरादतन हत्या में एक बारीक धागे के जितना फ़र्क़ होता है दोनों के बीच अंतर करना बहुत कठिन है,बेंच ने बोला कि वादी पक्ष के अनुसार पुलिस को 1992 में एक सूचना मिली कि एक ट्रक वैन विभाग का बैरियर तोड़ दिया है और एक मोटर साईकल से टकरा गया है।
वादी पक्ष के अनुसार पुलिस टीम को इसके बारे में सूचना दी जा चुकी थी तब सब इंस्पेक्टर डी के तिवारी उस स्थान पे अन्य पुलिस कर्मिर्यो के साथ मौजूद थे, जब ट्रक वहां पहुँचा तब सब इंस्पेक्टर ने ट्रक को रोकने का प्रयास किया,जिसे अभियुक्त चला रहा था, पुलिस को वहां देख कर अभियुक्त ने ट्रक की गति बढ़ा दी, किसी तरीके से सब इंस्पेक्टर ट्रक पर चढ़ने में सफल होगया लेकिन अभियुक्त ने उनको धका दे दिया जिसे इंस्पेक्टर के सिर पर गहरी चोट आई और उनकी मृत्यु हो गयी।
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