मिर्ज़ा ग़ालिब की गज़लें अगर आज हमारे होठों पर गूंजते हैं, तो इसमें एक दौर में बहुत बड़ा साथ रहा है मुंशी नवल किशोर का। वही मिर्ज़ा ग़ालिब जिनकी शेरो-शायरियों को मुंशी नवल किशोर ने अपनी प्रिंटिग प्रेस में जगह दी और उन्हें ऐसी पहचान दी की आज की पीढ़ी भी मिर्ज़ा ग़ालिब को पढ़ती है। ग़ालिब ने एक ख़त में लिखा था कि, “इस प्रेस ने जिसका भी दीवान छापा, उसको ज़मीन से आसमान तक पहुंचा दिया।”
नवल किशोर सबको एकजुट करके रखना पसंद करते थे और मानवता का सम्मान करते थे। इसलिए जब शाह ईरान 1888 में भारत आया, तब कलकत्ता में पत्रकारों से कहा कि ‘हिन्दुस्तान आने के मेरे दो मकसद हैं एक वायसराय से मुलाक़ात करना और दूसरा मुंशी नवल किशोर से’।
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उन्हें देश से इतनी मोहब्बत थी कि अंग्रेजों के दोस्ती होने के बावजूद वह आजादी के आंदोलन का समर्थन करते। एक बार एक अंग्रेज उनसे मिलने आया तो बात चल पड़ी ज्ञान व विज्ञान पर। उसने मुंशीजी से कह दिया, ‘देखिए! हमारे यहां कितने पुस्तकालय हैं। लोग कितना पढ़ते-लिखते हैं।’
मुंशीजी को यह बात ऐसी खटकी कि उन्होंने देश में 37 पुस्तकालय बना दिए। साथ ही इंग्लैंड के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय को 2000 पुस्तकें दान कर दीं।
इतना ही नहीं, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने यह नारा जरुर दिया था कि ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा’ , लेकिन इस नारे की प्रेरणा मुंशी नवल किशोर से ही मिली थी। नवाबों के शहर लखनऊ से अपने समाचार पत्र ‘अवध अखबार’ के जरिए मुंशीजी ने यह घोषणा की थी कि ‘आजादी हमारा पैदाइशी हक है’। यह उस जमाने में उत्तर भारत का चर्चित नारा बन गया था।
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