दिवाली का पर्व तो अब खत्म हो चुका है, लेकिन भारत अभी भी दिवाली के रंग में रंगा हुआ है। दिवाली सबसे पवित्र त्योहारों में से एक हैं। हर राज्य में इस त्योहार को मनाने की अलग परंपरा है। हर कोई अलग-अलग तरह से इस त्योहार को अपने दोस्तों और अपने परिवार के साथ मनाता है। कई जगहों पर जुआ खेलने का भी रिवाज़ है। अक्सर लोग दिवाली की रात को अपने दोस्तों के साथ बैठकर जुआ खेलते हैं। यह एक ऐसा खेल है, जिसे केवल मनोरंजन के लिए खेला जाए तो ठीक नहीं तो लोगों को अक्सर मुसीबतों का भी सामना करना पड़ा है। ताश के पत्तों से पैसों की बाजी लगाकर खेला जाने वाला खेल भारत में नया नहीं है। बस हर काल में इसके तरीकों में थोड़ा परिवर्तन आता रहा है। समय के अनुसार इस खेल का स्वरुप बदलता गया। पहले यह चौरस और चौपड़ के रूप में खेला जाता था, लेकिन वक्त के साथ यह बदलता रहा और अब यह ताश के साथ अन्य कई तरीकों से खेला जाता है।
आज हम आपको जुए से जुड़े कुछ खास किस्से व समय के साथ आए उसमें परिवर्तन के बारे में बताएंगे।
चौसर – सबसे पहले पत्थर या लकड़ी की गोटी से चौसर खेला जाता था। यह चार भाग वाला होता था और हर भाग में 16 खाने होते थे। इस तरह पूरे चौसर में कुल 64 खाने होते थे। प्रारंभिक काल में इसे सिर्फ मनोरंजन के लिए खेला जाता था। इसके लिए सफेद पत्थर के पासे बनाए जाते थे, जिन पर 1 से 6 तक अंक लिखे होते थे।
चौपड़– इसमें कपड़े पर चौसठ खाने बनाकर खेला जाने लगा। इसके अलावा इसे भी लकड़ी की गोटियों और लकड़ी के ही पासे का उपयोग करके खेला जाता था। इसी में पहले गायों, अनाज और सोने की मुद्रा के दांव लगने का चलन शुरू हुआ था।
जुआ या द्यूत– धीरे-धीरे चौपड़ का अस्तित्व खत्म हो गया और 48 खानों वाला ही नया खेल शुरू हुआ, जिसमें हर दांव पर पैसे लगाए जाने लगे। इस खेल को इतना खेला जाने लगा कि जुआघर खोले गए और इसका मालिक दो लोगों को कमीशन पर जुआ खेलने के लिए धन और स्थान उपलब्ध कराता था। इन्हें हम दुनिया के सबसे पहले कैसिनो कह सकते हैं।
ताश के पत्तों से जुआ– वर्तमान समय में ताश के पत्तों से जुआ खेला जाता है। कई प्रदेशों में दीपावली की रात घरों में जुआ खेला जाता है।
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