बड़ी पुरानी कहावत है, “If you educate a man, you educate an individual. But if you educate a woman, you educate a nation.”
कहते हैं एक महिला पूरे समाज को पढ़ाती है। आज के इस दौर में महिलाओं की शिक्षा पर काफी ध्यान दिया जाता है। यही वजह है कि, हर क्षेत्र में महिलाओं ने काफी नाम किया है। एक औरत अपने जीवन में कई किरदार निभाती है। घर से लेकर ऑफिस तक किसी को निराश नहीं करती। महिलाओं का शरीर पुरुषों के मुकाबले काफी कमजोर होता है। हर क्षेत्र में महिलाएं, पुरुषों की बराबरी करने में कभी पीछे नहीं हटती। वह किसी की मां है, तो किभी होममेकर, बिजनेसवुमन, टीचर, डॉक्टर, इंजीनियर, पुलिस, एक महिला क्या नहीं करती। महिला दिवस महिलाओं के इसी जज्बे को सलाम करता है। कहते हैं कि, हमारी पहली टीचर हमारी मां होती है। एक टीचर को भी भगवान का दर्जा दिया जाता है।
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः ।
गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
आज पूरी दुनिया में महिला दिवस मनाया जा रहा है। इस महिला दिवस के मौके पर जानें कौन हैंभारत की पहली महिला शिक्षिका।
कौन है भारत की पहली महिला शिक्षिका ?
उस दौर में जब महिलाओं को पढ़ने से, आगे बढ़ने से रोका जाता था, तब एक महिला थीं, जिसने सबको गलत सही का पाठ पढ़ाया था। 19वीं सदी में स्त्रियों के अधिकारों, अशिक्षा, छुआछूत, सतीप्रथा, बाल या विधवा-विवाह जैसी कुरीतियों पर आवाज उठाने वाली देश की पहली महिला शिक्षिका थीं, सावित्री बाई फुले। सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। 1840 में जब सावित्रीबाई फुले केवल 9 साल की थीं तब उनका विवाह ज्योतिराव फुले से हो गया था। उस समय उनके पति ज्योतिराव फुले की उम्र 13 साल थी। सावित्री बाई की जब शादी हुई थी, तो पढ़ना लिखना नहीं जानती थीं और उनके पति ज्योतिराव फुले तीसरी कक्षा में पढ़ाई करते थे।
सावित्री बाई का सपना था कि वह पढ़े लिखें, लेकिन उस समय दलितों के साथ काफी भेदभाव किया जाता था। सावित्री बाई ने एक दिन अंग्रेजी की एक किताब हाथ मे ले रखी थी तभी उनके पिता ने देख लिया और किताब को लेकर फेंक दिया। इसके बाद उनके पिता ने कहा कि शिक्षा सिर्फ उच्च जाति के पुरुष ही ग्रहण कर सकते हैं। दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने की इजजात नहीं है, क्योंकि उनका पढ़ना पाप है। इसके बाद सावित्रीबाई फूले ने उन्होंन प्रण लिया कि वह जरूर शिक्षा ग्रहण करेंगी चाहे कुछ भी हो जाए। पढ़ाई के प्रती उनका प्रेम देखकर उनके पति ज्योतिराव फुले ने उनको आगे पढ़ाया। इस दौरान सावित्रीबाई और उनके पति को काफि मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। बताया जाता है कि जब वह पढ़ने के लिए स्कूल जाती थीं, तो लोग उन्हें पथ्तर से मारते थे और उनके ऊपर कूड़ा और कीचड़ भी फेंकते थे। उच्च जाति के लोग उनका विरोध करते थे। समाज के ताने सुनने के बाद भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी और अपने पति के साथ मिलकर लड़ती रहीं।
जिन लोगों ने साबित्रीबाई फूले का विरोध किया उसी समाज की एक लड़की की उन्होंने जान बचाई। एक विधवा ब्राह्मण महिला आत्महत्या करने जा रही थी जिसका नाम काशीबाई था। काशीबाई गर्भवती थी और लोकलाज के डर से वह आत्महत्या करने जा रही थी, लेकिन साबित्रीबाई ने उन्हें रोका और डिलीवरी कराई। उन्होंने काशीबाई के बच्चे का नाम यशवंत रखा और उसे अपना दत्तक पुत्र बना लिया। सावित्रीबाई ने यशवंत को पढ़ा लिखाकर एक डॉक्टर बनाया।
सावित्रीबाई बचपन से ही एक दिलेर महिला थीं और गलत के खिलाफ आवाज उठाती रहती थीं। सावित्रीबाई फुले ने उन्होंने हमेशा ही लड़कियों की शिक्षा के लिए आवाज उठाई थी। उन्होंने सिर्फ शिक्षा के लिए ही संघर्ष नहीं किया, बल्कि उन्होंने समाज में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को दूर करने के लिए भी लड़ाई लड़ी। उन्होंने हमेशा ही शिक्षा और समाज सेवा में कई काम किए। अपने पूरे जीवन में उन्होंने 18 स्कूल बनाए। उन्होंने सबसे पहला स्कूल 1848 में पुणे में बालिका विद्यालय बनाया। उसमें केवल 8 बच्चे पढ़ने आते थे। सावित्री बाई ने बालहत्या, महिला यौन शोषण सुधार और विधवाओं के लिए सुरक्षित घर बनाना जैसे कई कामों में अहम योगदान दिया है।
सावित्रीबाई फुले की मृत्यु
सावित्रीबाई फुले की मृत्यु 1897 में सबसे पुरानी महामारी प्लेग से हुई थी। वो मरीज़ों का ध्यान रखते हुए इन्फेक्शन की चपेट में आ गईं थी। महाराष्ट्र सरकार ने उनके इस जोश को देखते हुए उनके सम्मान में पुणे की यूनिवर्सिटी का नाम सावित्रीबाई फुले के नाम पर रख दिया था।