‘शरतचंद्र’ बांग्ला के उन श्रेष्ठ में से हैं जिन्होंने बांग्ला साहित्य की धारा को बिल्कुल नई दिशा दी। बांग्ला साहित्य में जितनी जल्दी शरतचंद्र को ख्याति मिली, उतनी जल्दी शायद ही किसी और साहित्यकार को मिली हो। ‘देवदास’, ‘परिणीता’ जैसी सुपरहिट फ़िल्में शरतचंद्र के उपन्यासों पर ही आधारित थीं! उन्होंने अपने कथा साहित्य से केवल बंगाल के समाज के सामने ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय समाज के सामने स्त्री जीवन से सम्बंधित विभिन्न प्रश्नों को सजगता के साथ उखेर के रख दिया था ।
शरत देश के ऐसे उपन्यासकार थे, जो अपनी रचनाओं के जरिए लोकप्रिय होते गए। उनकी लोकप्रियता को इस नजरिये से भी देखा जा सकता है कि उन्हें जितना उन्हें सम्मान बंगाल में मिला उतना ही हिंदी, मलयालम, गुजराती के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में भी मिला। शरत ऐसा लिखते थे कि उनके पाठक रो पड़ते थे। शरतचंद्र बांग्ला साहित्य के उन लोगों में से एक थे, जिन्होंने भारतीय साहित्य में नारी जीवन और उनके अधिकारों को लेकर सबसे पहले मुखरता दिखाई। उन्होंने नारी-मुक्ति की परिकल्पना को विस्तृत रूप प्रदान किया तथा उसे सही मायनों में सामाजिक और राजनीतिक धरातल से जोड़ कर देखा।
उनका मानना था कि “औरतों को हमने जो केवल औरत बनाकर ही रखा है, मनुष्य नहीं बनने दिया, उसका प्रायश्चित स्वराज्य के पहले देश को करना ही चाहिए। अपने स्वार्थ की खातिर जिस देश ने जिस दिन से केवल उसके सतीत्व को ही बड़ा करके देखा है, उसके मनुष्यत्व का कोई ख्याल नहीं किया, उसे उसका क़र्ज़ पहले चुकाना ही होगा।”
शरतचंद्र का पूरा साहित्य नारी जीवन और उनके अधिकारों के ही इर्द-गिर्द नज़र आता है। एक पुरुष रचनाकार होते हुए भी उन्होंने स्त्रियों के भावों को बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा है और रचना में बखूबी उसकी प्रस्तुति भी की है। इस विशिष्ट प्रतिभा के लिए भारतीय साहित्य में उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।